Wednesday, October 16, 2024

बेटी


बेटी

                     Photo credit @ Roop Singh 

बेटी


माँ, जब मैं छोटी थी...
मिट्टी से खेला करती थी...
मिट्टी का घर बनाते वक्त.....
मैंने दर्ज की ! तुम्हारी तकलीफ तुम्हारा डर....

के ! घर, कहीं टूट न जाए ढह न जाए....

आखिर! कितने रखरखाव और मेहनत से....
जोड़े रखती तुम घर को, बचाए रखती तुम घर को....

घर को बचाए रखने और बनाए रखने की,
अहमियत को मैंने समझ लिया था......

बहुत छोटी उम्र में मिट्टी से खेलते - खेलते.....

और अगर ना भी खेली होती मिट्टी से....
तब भी सीख ही जाती....
ये गुण....

कहते हैं ! माँ  के गुण.....
स्वतः ही आ जाते हैं , बेटी मैं.........

(c) @ Roop Singh 15/10/2024

Monday, October 14, 2024

अहाता

 अहाते में बैठी माँ 

       Photo credit @ ...Roop SINGH

अहाते में बैठी माँ 

        माँ अपने अहाते में बैठी है। एक पुरानी सैंटो और पटेरों से बनी कुर्सी पर। अहाते की छत आकाश की ओर खुलती।

        लंबे गलियारे से होते हुए जब मैं वहां पहुंचा, माँ तब तक दो प्याली चाय ले आई थी। जैसे कि वह पहले से जानती थी मैं आने को हूं। और मेरे कुछ कहने से पहले ही वह बोल पड़ी "तुम अतुल के मित्र होना" मैंने हां में स्वीकृति दी।
        
      मैंने माँ को प्रणाम किया चरण स्पर्श किए और पास ही  जो एक दूसरी कुर्सी थी उस पर बैठ गया, एक दिन अतुल ने मुझसे कहा था कि जब कभी भी मेरे घर की तरफ से निकलना हो तो मेरी माँ से मिलते जाना वह घर पर अकेली रहती है।

      पर मैं अचंभित था इस बात से, के माँ को कैसे पता लगा मैं अभी आने को हूं। मैं तो बताकर आया नहीं और देखो माँ दो प्याली चाय भी ले आई है। प्याली से भाप आकाश की ओर उठ रही है, खैर !

माँ ने मुझे चाय पीने को कहा और तत् क्षण ही सवाल किया, कैसा है अतुल ? मैंने माँ को बताया " माँ, जब मैं महीने भर पहले अतुल से मिला था वह ठीक था और अब भी ठीक ही होगा। मेरी छुट्टियां समाप्त होने को है अब दफ्तर जाकर ही फिर से मिलना होगा अतुल से "

      "मैं बताऊंगा उसे, मैं आपसे मिला पर आप यह बताएं आपको कैसे पता लगा मैं आने को हूं"

           "अतुल ने एक दिन कहा था मेरा मित्र रूप जब छुट्टियों पर आएगा तब वह आपसे मिलने आएगा और मुझे तभी से विश्वास था इस सरद के किसी एक दिन तुम आओगे। इसलिए आजकल मैं हमेशा चाय की दो प्याली बना लाती हूं "

               माँ अपना दिन अहाते में ही बिताती और क्यों नहीं अहाता इतना गजब जो था।  भीतें गोबर और लाल मिट्टी के मिश्रण से लिपि हुई। माँ  ने इन भीतों को जाने कितनी मेहनत से लीपा होगा। गन्ध  और चमक ऐसी जैसे बीते हुए कल ही माँ ने इन्हें लीपा है और एक अद्भुत बात यह भी अहाते की छत जो आकाश को खुलती उसमें रात्रि के समय जैसे तारामंडल के दर्शन होते और खिड़की की तरफ झांको तो उठता हुआ दिन का सूरज दिखाई पड़ता , जिसकी गुनगुनी धूप भीतर आती।

         अब तक माँ चाय पीकर अपने काम में व्यस्त हो चुकी थी, काम ? हां माँ  बिंदियां बनाती। खिड़की के साथ सटी हुई मेज पर कच्ची पक्की बिंदियां रखी हुई है मटर के दानों के नाप की बिंदियां।

        माँ चिकनी मिट्टी से गोलाकार बिंदी बनाती, उस पर एक झीना कपड़ा लगाती और उसे गहरे लाल रंग से रंग देती। अनुमान से सौ  एक बिंदियां  तैयार थी और पचास के लगभग कच्ची पक्की। मेज पर एक चिकनी मिट्टी का ढेला, कुछ छोटे छोटे चिकनी मिट्टी के गोले जो माँ ने बनाए थे और एक कटोरी में गहरा लाल रंग रखा हुआ था और कुछ छोटे-छोटे उपकरण भी। यह सब देखना बहुत मनभावक था और मन मे आया कि वह किसी कलाकार से कम नहीं। कम नहीं क्या ?  हां ! वह कलाकार ही है, और न केवल कलाकार वह एक प्रेरणा भी 
है। 

       यह सब देखना, खासकर सरद की धूप का खिड़की से अंदर आकर मेज और कुर्सियों पर पढ़ना न केवल गर्माहट भरा था वह लुभावना भी लग रह था। अहाते की भीतें जगमग थी, चाय की खाली प्यालियां, पुरानी मेज, खिड़की पर लगी लाल बलुआ पत्थर की सिल्लियां अहाते को और खूबसूरत बना रहे थे। अहाते में बैठना सम्मोहक था। मां के सर पर बंधा स्कार्फ, उसके पके हुए सुनहरे बाल, चेहरे और काँपते हुए हाथों की झुर्रियां देखकर हृदय के उद्गार किसी मीठे स्नेह के सरोवर में डुबकी लगा रहे थे जैसे जलेबी चाशनी मे । और उसकी नम मोतियों जैसी आंखें ममता का स्पष्ट दर्शन दे रही थी। माँ के सानिध्य में, मैं जो कुछ समय  बैठा हूं इसकी खुशी मेरे लिए अनमोल है और इसकी ममतामयी ताजगी हमेशा मेरी स्मृतियों में बनी रहेगी। 

     इन प्रेम पूर्ण और भावनात्मक क्षणों को शब्दों में बता  पाना मेरे लिए कठिन है, बस यही कहूंगा "मैं बहुत भाग्यशाली हूं।"

(c) @ Roop Singh 08/10/2024

Friday, June 28, 2024

एक बरस बीता

 एक बरस बीता

   
                     photo credit. ....Roop Singh 



एक बरस बीता 


चौमासे ने धो डाले आंगन  से. ..
मां के हाथों से बने रंगोली-मांडुड़े ...
के ! बूढे माँ-बाप को चल बसे...
अब एक बरस बीता..... !!


गाँव की माटी घर के आंगन से उपड़ी. ..
बनकर पपड़ी. ..
और मूसलधार बारिश से...
दहलीज़ पर हो गये कितने छेद. ..!!

बेटा जो परदेस गया था..
वो आखिर कब लौटेगा ..?

के, इंतज़ार रह गया रीता का रीता....
बूढे माँ बाप को चल बसे. ...
एक बरस बीता. ....!!

फूंस के छप्पर में दरारें पड़ गयी...
अब सूरज झाँके , अम्बर ताके. ..

और चूल्हे की भीतें तो राख मे भीतर को ढेह गई ...

यहाँ तक के,मक्के - बाजरे की रोटियों की खुशबू
यादों से भी , संग ले गई चिता....
के, बूढे माँ बाप को चल बसे. ..
एक बरस बीता. ..!!

अब सूने पड़े घर की ,चहल - चमक कौन लौटाए..?
जब अपने ही घर को न बापस, लौट कर अपने आए. ...

वाह रे परदेस..!
कैसी तेरी प्रीती कैसा तेरा नाता...
के जो जाता, फिर ना लौट के आता...!

गांव घर आंगन , अब सूने पन मे जीता...!
के ! बूढे माँ बाप को चल बसे....
अब एक बरस बीता. .....!!

(c) @ Roop Singh 20/09/2018








Wednesday, October 11, 2023

असंतुलन

असंतुलन



                  art work by. .....Roop Singh 


असंतुलन 

कुछ भी न होने पर भी,  एक-दो चीजें हैं....
जो स्वाभाविक रूप से रहती है विद्यमान ...

यहां मतलब ! कुछ भी न होने की स्थिति से है .....
रहता है तब!  अंधेरा, समय और रिक्त (आकाश असीमित)...

ये एक विज्ञान की पहेली जैसा है.....
पर, मैं समझता हूं..
सर्वप्रथम ! जब किसीका जन्म हुआ होगा उस शून्य में....
तो जरूर ! वह गणित ही रहा होगा.....
और बाद में निसंदेह ऊर्जा शक्ति भी....

यह तो हुई कुछ भी न होने की स्थिति की बात.....

अब थोड़ी दृष्टि इस भौतिकी पर भी डालते हैं....
चलो मानव जीवन को उदाहरण के लिए लें. ...

आप  देखिए...
यहां सब कुछ होते हुए भी.....
एक तुलनात्मक और असंतुलित समानता दिखती है....
कुछ भी न होने की स्थिति जैसी ही....

दिखता है जीवन में अंधेरा, अंधेरा, अंधेरा....
समय में, और असमय में भी .....
कितना कुछ होने के बाद भी दिखता है...
केवल नीरस अंधेरा....

और इस प्रकार बना रहता है जीवन में....
रिक्त, रिक्त, रिक्त. ....
विशाल रिक्त अकल्पनीय ब्रह्मांड जैसा....

मान लेता हूं जीवन में विज्ञान अपने ढंग से काम करता रहा होगा.....
पर आप देखिए.....
यहां गणित भी जबरदस्त ढंग से काम करता है.....

के! तर्क - वितर्क चलता ही रहता है.....
मस्तिष्क के पटल पर.....
अनवरत ही. .....

जाने कौन सा समाधान चाहता है, आखिर यह जीवन....
गणित की भाषा में कहूं तो...!
न जाने ! कौन सा हल खोजना चाहता है यह जीवन....

सारी माथा-पच्ची  के बाद...
एक ही निष्कर्ष सही लगता है.....

ऊर्जा को अंततः शून्य  में ही समा जाना चाहिए. ...
हां ! समा जाना चाहिए शून्य मैं ही. .....!!

(c)@ Roop Singh 08/10/23




Sunday, September 3, 2023

कष्ट

 कष्ट



                    Photo credit. ..@ Roop Singh 

कष्ट


उस रोज़ बहुत भयंकर बारिश हुई....
होती भी क्यों नहीं ?
पिछ्ले दो हफ्तों से गर्मी बहुत तेज़ जो थी...

पर शिकायत है मुझे उन बादलों से...
उन्हें नहीं बरसना चाहिए था..
दो दिन और रुक जाते !..

उस बेचारे पर कहर बनकर टूट पड़े...
बेअकल - बेअदब कहीं के...

आखिर जब कोई दुःखी हो..
ये शब्द ठीक नहीं..
हां, जब कोई बहुत पीड़ा में हो...
अत्यंत पीड़ा में...

तब सबको शांत रहना ही चाहिए...
जब तक के पीड़ा का मवाद , बहकर बाहर ना निकल जाए...

मगर बेशर्मी तो देखो...!
छ्प्पर फाड़ बरसा, चूता रहा रात भर...
कहीं सूखा ना छोड़ा बेचारे के घर में...

वो रो लेना चाहता था, जी भर के...
मगर ये बेशर्म , उस अभागे पर भारी रहे ....

उसके रोने के अधिकार की अनदेखी नहीं होनी चाहिए थी...
हे ईश्वर !....
आखिर ! उस दिन, उसने अपना  जवान बेटा खोया था ...!

(c) @ Roop Singh 09/06/21





Photo credit @ Roop Singh 

Monday, February 6, 2023

विलुप्ति

 विलुप्ति 

                      Photo credit...@Roop Singh

विलुप्ति 


क्षण क्षण विलुप्त हो रहा हूं।
कण कण स्वयं से, जैसे मैं मुक्त हो रहा हूं।
प्राची से निशा तक हो रहा हूं।...
भोतिकि से कल्पना तक हो रहा हूं...

हो रहा हूं मुक्त,स्वपन से वास्तविकता तक..
हो रहा विलुप्त अपने अस्तित्व की परिधियों की परिपाटी से...

विलुप्त हो रहा हूं अंतहीन समय में... 
ज्ञान की पराकाष्ठा की ओर...
सुदूर इस माटी से।

हो रहा हूं मुक्त, अपनी भावनाओं से...
अपनी अकांक्षाओं से....
भयभीत कर देने वाली कथाओं से...!

धरा से आकाश की ओर हो रहा हूं...
भूत और भविष्य की सीमा के पार..!
नए किसी आयाम की शिराओं की ओर हो रहा हूं....

तत्त्व से मुक्त हो....!
ऊर्जा पुंज के प्रथम स्रोत की प्राप्ति की
और हो रहा हूँ।....

क्षण क्षण हो रहा हूं, कण कण हो रहा हूं।
मैं विलुप्त हो रहा हूं....
मैं मुक्त हो रहा हूं.....!!

(c) @ Roop Singh 20/10/21

                     Photo credit @ Roop Singh 

Saturday, October 8, 2022

बिखराव


 बिखराव


                         Photo credit.. Roop Singh


बिखराव


जीवन में एक पड़ाव के बाद....
पाता हूं बिखराव ही बिखराव...

बिखराव इतना ...?

के ! बँट गया हूं, असखंय टुकडों में....

अब नहीं दिखता पूरा, मैं किसीको भी...

जिसकी दृष्टि जितने टुकडों पर...
उसे मैं उतना दिखता.....

सब...!
अब शंका से मुझे देखते.....
और यदा-कदा तो कह भी देते...
"तुम हमेशा से, ऐसे तो न थे "....

अब मैं, इस सतहि दृष्टिभ्रम के बारे क्या कहूं.....!

सच तो ये है....
के ! मैं, अब भी वही हूं...
जो मैं हमेशा से था....!!

पर, जब सभीको...
अपने अपने आंकलन से मुझे देखना है....

तब, मुझे तो बँटना ही था...
असखंय टुकडों में...
सो, यूं मेरा बिखराव हुआ....!!

परंतु , यदि कोई झांक सके मेरे भीतर...
तो मैं अब भी वही तो हूं.....
जो मैं था....!!

(c) @ Roop Singh 08/10/22















Sunday, July 24, 2022

एक कदम

एक कदम


Perspective 1....by Roop Singh


एक कदम

मैं जब एक कदम आगे बढ़ााऊं , तो तुम एक कदम पीछे खींचना।
मैं दो कदम पीछे हट जाऊंगा।।

और जब मैं एक कदम पीछे खींचू तो तुम एक कदम आगे मत बढ़ाना।
कहीं में दो कदम आगे ना आ जाऊं।

अगर तुम चाहो के मैं आगे आऊं, तो जरूर एक कदम बढ़ाना ।।

(C) @ Roop Singh 06/07/20




संगीत की धुन

शब्दोंं से ना कहो कोई बात अपनी....
प्रिय !...
किसी संगीत की धुन पर सजा-धजा कर कहो...
के संगीत की धुन, झूमने का अवसर देगी...
शब्द तो केवल बाण चलाते हें....

(c) @ Roop Singh 26/02/21



समय के साथ


यूं तो मुझे पहाड़ बहुत पसन्द है....
पर कहानी पेड़ और शीशे की सुनाता हूं...

शीशा हवा को रोकता है, धूप को नहीं...
और पेड़ धूप को रोकता है, हवा को नहीं...

पहाड़ की अपनी लम्बी कहानी है, कभी और सुनाता हूं....

(c) @ Roop Singh 10/10/22



आनंद

      देखा ! आंखों के सामने धरातल पर बह रहे थे बादल । मूंगफली 
के खेतों जैसे थे ऊँचाई में। हवा सर्र - सर्र चल रही थी । बादलों की नन्ही टुकड़ियां बहे जा रही थी और कर रही थी जैसे हवा का  चित्रण। उसकी उपस्थिति की व्याख्या । हवा का स्पर्श समय के प्रहर  की ओर ध्यान करा रहा था, शायद रात्रि का अंतिम प्रहर था । दृश्य मनोहर! था अती मनोहर ! दूध से धुले नन्हे बादल जैसे सफेद झागदार धुएं के झुंड हो।

        उधर आकाश की और निहारा तो देखा गजब और भी गजब ।बादल तो धरा पर थे पर ऐसा नहीं था के आकाश रीता हो,  सतरंगी पुष्पों से भरा पड़ा था आकाश। आकाश दृश्य बदलते जाता, न जाने कैसे कैसे आकार - आकृतियां धरता। जैसे ब्रह्मांड का सारा संकलन आज आकाश पटल पर उतर आया हो। देखा के कभी सात घोड़ो वाला रथ  निकल रहा है । तो कभी नाच रही है नृत्याँगनाएं । क्षण प्रति क्षण बदलता ही जा रहा है  दृश्य ।  वाह ! आनंद ही आनंद !!

     सब कुछ ठीक था पर यह क्या ? जहां बैठा हूं वहां की स्थिति और  स्थान  सही नहीं लग रहा। एक छटपटाहट है सिंहासन ना होने की । धरा पर  मिट्टी और कंकड़ों पर बैठ दृश्य तो मनोहर लग रह हे,  परन्तु आनंद अधूरा सा लग रहा है। ध्यान रुक रुक कर चुभते कंकड़ों पर भी जाता है ।

     फिर, बहुत गहन विचार किया । विचार  करके पाया, की जो पूर्ण और अनूकूल स्थिति की चाह है ना यह आनंद का आनंद नहीं लेने देती । वरना आप ही देख लो आनंद ही आनंद तो है।

(c) @ Roop Singh 14/09/23

Wednesday, July 20, 2022

प्रतिक्षा

प्रतिक्षा

Photo credit... Artra Beginnings


प्रतिक्षा


प्रतिक्षा मेरी, कोई प्रतिज्ञा तो नहीं.....
पर हां,  एक कीर्तिमान जैसी है......

तुम ही देखो !......
कितने बरस हुए जाते हैं......

ऋतुएं आती हैं, जाती हैं....
पर मेरी रितु बदलती नहीं....
मैं एक ही धुरि पर टिका रहता हूं.....

यह आसमान और धरा, रंग बदलते हैं.....
पर मैं, एक ही रंग ओढ़े  रहता हूं....

ये सावन, वह बसंत....
और सरद की धूप....
सब मुझे कहते हैं.....
रंग बदलो, हमारे संग बदलो....

अब मैं उन्हें क्या बताऊं....
के, मेरे इस उदास चेहरे के पीछे....

मेरी प्रतीक्षाओं में एक मोहक सुगंध है....
एक आंतरिक वार्तालाप है,
मुग्ध मन्त्रणा जैसा....

और, वही मेरी रितु है.......!!

(c) @ Roop Singh 20/07/22


Saturday, May 29, 2021

पहाड़ से दिन

                         Photo credit...Roop Singh


पहाड़ से दिन


ये पहाड़ से दिन कट ही जाते हें...
इंतजार में तुम्हारे...
पर तुम, नहीं आते...

टकटकी लगा कर देखती है मेरी आँखे..
सूने सूने से रास्तों की तरफ...
पर तुम, नहीं आते...

बसंत की बहारे, बारिशों की रिमझिम..
सरद की गुनगुनी धूप, प्राची की कलरव करती बेला...
और ये गर्मियों की चांदनी रातों में ठंडी हवा के झोंके...
सभी तो बुलाते हें तुम्हें...
मगर तुम हो के, नहीं आते..

और, क्या तुम जानते हो ? ये सब मुझे कितना सताते हें...
मगर देखो ! फिरभी ये पहाड़ से दिन कट ही जाते हें...

क्योंकि, तुम केवल इंतजार नहीं हो...
सांसों की डोर सी हो, जो हृदय से जुड़ी है...
सपनों की तस्वीर सी हो, लगता तो यूं भी है के ! तकदीर सी हो...
मगर तुम हो के, नहीं आते...

ये कोई शिकायत नहीं है...
बस एक संतापी का हाल  है...
और एक लेखक का ख़्याल है...
पहाड़ से दिन तो जैसे तैसे कट ही जाते हें....
कट ही जाते हें.......


(c) @ Roop Singh 29/05/21